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ग़ज़ल
कभी तो ज़िंदगी ख़ुद भी इलाज-ए-ज़िंदगी करती
अजल करती रहे दरमान-ए-दर्द-ए-ज़िंदगी कब तक
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
ख़ुद दर्द बन गया मिरा दर्मान-ए-ज़िंदगी
इतना क़रीब हो गए कुछ दर्द ही से हम
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
क़द्र-ओ-क़ीमत दर्द-ए-दिल की अहल-ए-दिल से पूछिए
दर्द को दरमान-ए-दर्द-ए-ला-दवा पाते हैं लोग