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ग़ज़ल
क्यूँकर न अहल-ए-बज़्म में ऐ 'शाद' हो रुसूख़
नेमुल-बदल हूँ 'रासिख़'-ए-ग़ुफ़राँ-पनाह का
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया
रियाज़ था बा-रुसूख़ मेरा मिरे सुख़न में निखार लाया
शब्बीर नाक़िद
ग़ज़ल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
किया ग़म-ख़्वार ने रुस्वा लगे आग इस मोहब्बत को
न लावे ताब जो ग़म की वो मेरा राज़-दाँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अदा-ए-कम-निगाही ने किया रुस्वा मोहब्बत को
ये किस की मेहरबानी है न तुम समझे न हम समझे
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मजाज़'
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुस्वा करे कोई