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ग़ज़ल
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
मुझे लम्हा-भर की रफ़ाक़तों के सराब और सताएँगे
मिरी उम्र-भर की जो प्यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए