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ग़ज़ल
मैं रोज़-ए-जश्न की तफ़्सील लिख कर रख तो लेता हूँ
मगर उस जश्न की तारीख़ ख़ाली छोड़ देता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
तू जहाँ के बहर-ए-अमीक़ में सर पर हुआ न बुलंद कर
कि ये पंज-रोज़ा जो बूद है कसो मौज-ए-पुर का हबाब है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तुम्हारे वस्ल की इफ़्तारी आए या न आए
मगर मैं ने तुम्हारे हिज्र का रोज़ा रखा है