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ग़ज़ल
भले आदमी कहीं बाज़ आ अरे उस परी के सुहाग से
कि बना हुआ हो जो ख़ाक से उसे क्या मुनासिबत आग से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
जिस में तू ने हाथ थे धोए कच्चे दूध सा महके है
तेरी ख़ुशबू से मिलती है झरने के इस झाग की ख़ुशबू
मधूरिमा सिंह
ग़ज़ल
राह कठिन है दूर है मंज़िल वक़्त बचा है थोड़ा सा
अब तो सूरज आ गया सर पर सोने वाले अब तो जाग
शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी
ग़ज़ल
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक