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ग़ज़ल
क्या जाने कब किस साअत में तब्अ' रवाँ हो जाए
ये दरिया बे-मौसम भी तुग़्यानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ये मुशगाफ़ियाँ हैं गिराँ तब-ए-इश्क़ पर
किस को दिमाग़-ए-काविश-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तब्अ' है मुश्ताक़-ए-लज़्ज़त-हा-ए-हसरत क्या करूँ
आरज़ू से है शिकस्त-ए-आरज़ू मतलब मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कैसे ख़ुश-तबा हैं इस शहर-ए-दिल-आज़ार के लोग
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाती है तब पूछते हैं