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ग़ज़ल
क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता
फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जुदा हो कर भी इंशा की मोहब्बत उस के दिल में है
किसी पर ज़ुल्म होता है क़लंदर चीख़ उठता है
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
अब ख़ाक तो किया है दिल को जला जला कर
करते हो इतनी बातें क्यूँ तुम बना बना कर