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ग़ज़ल
ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए