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ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तिरी फ़ितरत में यूँ मुसबत इशारे ढूँडता हूँ मैं
किसी सहरा को जैसे चाहता हूँ आबजू करना
राग़िब अख़्तर
ग़ज़ल
दायरा मनफ़ी मुसबत का तो अपनी जगह मुकम्मल है
कोई बर्क़ी-रौ दौड़ा दे इस बे-जान से नाते में
साइमा इसमा
ग़ज़ल
ये ख़ैर-ओ-शर में तनासुब तुम्ही से क़ाएम है
तुम्ही हो मुसबत-ओ-मनफ़ी के संग-ए-हाक़ तुम्ही