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ग़ज़ल
लुत्फ़-अंदोज़-ए-रियाज़-ए-दहर क्यूँ होते नहीं
दावरा कम-ज़र्फ़ होते हैं तिरे मरताज़ क्यूँ
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
लोग कहते हैं कि है ज़ाहिद-ए-मरताज़ 'रियाज़'
रिंद कहते हैं उसे चोर है मय-ख़ाने का
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ
जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई
कि करे ताज़ियत-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मेरे बा'द
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं मर जाओ
जो ग़श आता है तो मुझ पर हज़ारों दम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ