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ग़ज़ल
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
तिरी जुस्तुजू में निकले तो अजब सराब देखे
कभी शब को दिन कहा है कभी दिन में ख़्वाब देखे
जमील मलिक
ग़ज़ल
ये मुल्क अपना है और इस मुल्क की सरकार अपनी है
मिली है नौकरी जब से बग़ावत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील
जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बा'द
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
जिन के लिए मर मर के जिए हम क्या पाया उन से 'मंज़ूर'
कुछ रुस्वाई कुछ बदनामी हम को मिली सौग़ात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
तर्क-ए-मोहब्बत अपनी ख़ता हो ऐसा भी हो सकता है
वो अब भी पाबंद-ए-वफ़ा हो ऐसा भी हो सकता है