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ग़ज़ल
जब ये समझूँगा कि मेरी ज़ीस्त है मम्नून-ए-मर्ग
मौत मेरी ज़िंदगी का आसरा हो जाएगी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
ग़ज़ल
अपनी इस वारफ़्तगी-ए-शौक़ का मम्नून हूँ
बार-हा मुझ को भरी महफ़िल में तन्हा कर दिया
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
कि उन के शर से क्या क्या ख़ैर के पहलू निकलते हैं
अनवर मसूद
ग़ज़ल
ऐसा नहीं दुआओं में माँगा नहीं तुझे
क़िस्मत में ही नहीं था जो पाया नहीं तुझे