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ग़ज़ल
क्या मुनज्जिम से करें हम अपने मुस्तक़बिल की बात
हाल के बारे में हम को कौन सा मालूम है
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
नवेद-ए-सर-बुलंदी दी मुनज्जिम ने तो मैं समझा
सगान-ए-दहर के आगे ख़ुदा होने का वक़्त आया
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
गिरते ख़ेमे जलती तनाबें आग का दरिया ख़ून की नहर
ऐसे मुनज़्ज़म मंसूबों को दूँ कैसे आफ़ात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
मुनइम की तरह पीर-ए-हरम पीते हैं वो जाम
रिंदों को भी जिस जाम से परहेज़ बहुत है