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ग़ज़ल
मुंजमिद सज्दों की यख़-बस्ता मुनाजातों की ख़ैर
आग के नज़दीक ले आई है पेशानी मुझे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
हवा-ए-अब्र में गर्मी नहीं जो तू न हो साक़ी
दम अफ़्सुर्दा कर दे मुंजमिद रशहात-ए-बाराँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुंजमिद सा हो गया हूँ ख़ुनकी-ए-एहसास से
धूप भी निकली है लेकिन तन पे कपड़ा ओढ़ कर
इफ़्तिख़ार नसीम
ग़ज़ल
तेरे इख़्लास-ए-सितम ही का इसे फ़ैज़ कहें
मुंजमिद दर्द पिघलता है ग़ज़ल होती है