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ग़ज़ल
क्या दबदबा-ए-नादिर क्या शौकत-ए-तैमूरी
हो जाते हैं सब दफ़्तर ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब आख़िर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ुश-नुमा या बद-नुमा हो दहर की हर चीज़ में
'जोश' की तख़्ईल कहती है कि नुदरत देखिए
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
'नादिर' को जान देने से क्यूँ रोकता है तू
जीने से भी है क्या उसे हासिल तिरे बग़ैर