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ग़ज़ल
हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं
हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
हाथ में सोने का कासा ले के आए हैं फ़क़ीर
इस नुमाइश में तिरा दस्त-ए-तलब देखेगा कौन
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
नुमाइश बाप की दौलत की कर के सोचता था मैं
कि शायद इम्तिहान-ए-इश्क़ पैसों से निकल जाए
कुशल दौनेरिया
ग़ज़ल
नहीं होता है मुहताज-ए-नुमाइश फ़ैज़ शबनम का
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में