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ग़ज़ल
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मैं ने ऐसे ही गुनह तेरी जुदाई में किए
जैसे तूफ़ाँ में कोई छोड़ दे घर शाम के बा'द
फ़रहत अब्बास शाह
ग़ज़ल
गिला ना-मेहरबानी का तो सब से सुन लिया तुम ने
तुम्हारी मेहरबानी की शिकायत हम भी रखते हैं
जोश मलसियानी
ग़ज़ल
करें क्या ये बला अपने लिए ख़ुद मुंतख़ब की है
गिला बाक़ी रहा लेकिन शिकायत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
तेग़ मुंसिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद
बे-गुनह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा