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ग़ज़ल
रखता है सोज़-ए-इश्क़ से दोज़ख़ में रोज़-ओ-शब
ले जाएगा ये सोख़्ता-दिल क्या बहिश्त में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
यूँही पलते रहे गर हशत-पा इस झील की तह में
किसी दिन सतह पर हँसते शिकारे डूब जाएँगे
अली अकबर अब्बास
ग़ज़ल
'ज़ुबैर' इक बार उँगली भी नहीं छूने को मिलती है
वो अपने हश्त-पहलू में रसाई क्यूँ नहीं देता
ज़ुबैर शिफ़ाई
ग़ज़ल
जब अफ़लातून का अंधा बरगद फैला तो ग़लतान हुआ
सब तन को जवानी काट गई तो ख़ुश्क लबों पर हिश्त रखी
यासिर इक़बाल
ग़ज़ल
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा