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ग़ज़ल
अगर ये ज़ख़्म भरना है तो फिर भर क्यूँ नहीं जाता
अगर ये जान-लेवा है तो मैं मर क्यूँ नहीं जाता
प्रबुद्ध सौरभ
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले