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ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
हमारे क़ाफ़िए तो हो गए सब ख़त्म ऐ 'अकबर'
लक़ब अपना जो दे दें मेहरबानी है ये जोशी की
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ग़ज़ल 'इंशा' और भी एक लिख इसी बहर और रदीफ़ की
कि ज़बर की क़ाफ़िए जिस में हों मुझे नफ़रत आ गई ज़ेर से