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ग़ज़ल
जब मैं देखूँ हूँ तो कसरत है ख़रीदारों की
घर में उस ग़ैरत-ए-यूसुफ़ के है बाज़ार लगा
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
क्या न कुछ हो गया इक ग़ैरत-ए-यूसुफ़ के लिए
कब मोहब्बत में मैं रुस्वा सर-ए-बाज़ार न था
फ़हीम गोरखपुरी
ग़ज़ल
इन दिनों हज़रत-ए-यूसुफ़ की वो ना-क़दरी है
नहीं बुढ़िया भी ख़रीदार बुरी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
चलो अब तोड़ डालो आख़िरी रिश्ता भी हम से तुम
ये कह कर साथ 'यूसुफ़' को निभाना भी नहीं आता
वक़ास यूसुफ़
ग़ज़ल
देख ऐ चश्म-ए-ज़ुलेख़ा क़द्र अपने प्यार की
आज फिर यूसुफ़ के भाई हैं ख़रीदारों के साथ
यूसुफ़ ज़फ़र
ग़ज़ल
गुनाह क्या है जो दिल से अज़ीज़ रखते हैं
बने हो यूसुफ़-ए-सानी तो चाह करते हैं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
चाहते हैं कि कोई ग़ैरत-ए-यूसुफ़ फँस जाए
किस क़दर खोटे खरे बनते हैं बाज़ारों में
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
नर्गिस उस ग़ैरत-ए-गुल-ज़ार से क्या आँख मिलाए
आँख भी वो कि नहीं जिस को मयस्सर पलकें