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ग़ज़ल
क्यूँ चरागाह-ए-ग़ज़ालाँ न कहूँ पलकों को
फिर रही हैं मेरी नज़रों में तुम्हारी आँखें
तअशशुक़ लखनवी
ग़ज़ल
राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं
चाँद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालाँ सब जाने पहचाने हैं
इब्न-ए-सफ़ी
ग़ज़ल
दीदा-ओ-दिल पे किया करती है क्या क्या जादू
मस्ती-ओ-शोख़ी-ए-चश्मान-ए-ग़ज़ालाँ हर शब
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
साक़िया हिज्र में मय-ख़ाना बयाबाँ होगा
दौर-ए-साग़र भी रम-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ होगा
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
उन की नज़रों पे जो चढ़ जाए वही ज़र्रा-ए-ख़ाक
सुर्मा-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ है ये मा'लूम हुआ
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
जानिब-ए-शहर-ए-ग़ज़ालाँ फिर चली शाम-ए-फ़िराक़
दश्त की बे-ख़्वाबियों का राज़दाँ आएगा क्या
फ़ारूक़ नाज़की
ग़ज़ल
उसी महफ़िल उसी बज़्म-ए-वफ़ा के गोशे गोशे में
लुटेगी मस्ती-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ, हम न कहते थे
सैफ़ुद्दीन सैफ़
ग़ज़ल
गर्दिश-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ गर्दिश-ए-साग़र है याँ
ख़ुश रहें अहल-ए-वतन दीवाना-पन में मस्त है