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ग़ज़ल
चाक-ए-दामन को मिरे चूम के ये उस ने कहा
चाक-ए-दामन की सिलाई तो नहीं हो सकती
फ़ैज़ान जाफ़री अल-ख़्वारिज़्मी
ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
उम्र भर देखा न अपने चाक-ए-दामन की तरफ़
बस तिरी उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सुलझाते रहे
ज़हीर अहमद ज़हीर
ग़ज़ल
ऐसे दीवाने को क्या चाक-ए-गरेबाँ की हो क़द्र
उम्र-भर जो चाक-ए-दामन ही रफ़ू करता रहा
नाज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
ग़म है मे’यार-ए-जुनूँ शौक़ के सामाँ हैं बहुत
चाक-ए-दामन हैं बहुत चाक-ए-गरेबाँ हैं बहुत