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ग़ज़ल
जिनाँ में साथ अपने क्यूँ न ले जाऊँगा नासेह को
सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
रूह निकल कर बाग़-ए-जहाँ से बाग़-ए-जिनाँ में जा पहुँचे
चेहरे पे अपने मेरी निगाहें इतनी देर तो रहने दो
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
या-रब हरीक़-ए-शो'ला-ए-इश्क़-ए-बुताँ रहूँ
दोज़ख़ की आग ले के मुक़ीम-ए-जिनाँ रहूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हम तो समझे थे कि दुश्मन पे उठाया ख़ंजर
तुम ने जाना कि हमीं तुम पे हैं मरने वाले
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कू-ए-जानाँ का समाँ आँखों के आगे फिर गया
सुब्ह-ए-जन्नत का जो अपने सामने मंज़र खुला