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ग़ज़ल
ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
था लुत्फ़-ए-वस्ल और कभी अफ़्सून-ए-इंतिज़ार
यूँ दर्द-ए-हिज्र सिलसिला-जुम्बाँ न था कभी
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
चार ज़ंजीर-ए-अनासिर पे है ज़िंदाँ मौक़ूफ़
वहशत-ए-इश्क़ ज़रा सिलसिला-ए-जुम्बाँ होना
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
लोटता था इस में बद-ख़़ूई से मैं मानिंद-ए-अश्क
शोख़ी-ए-तिफ़्लान से जुम्बाँ मिरा गहवारा था
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
हर तरफ़ दहर में था ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर का गुल
मगर ऐ जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-जुम्बाँ हम थे
तअशशुक़ लखनवी
ग़ज़ल
क्यूँ उठने लगे आज क़दम जानिब-ए-सहरा
फिर जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-जुम्बाँ तो नहीं है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
तनफ़्फ़ुस मुश्क-अफ़्शाँ है तकल्लुम बर्क़-ए-जुम्बाँ है
तबस्सुम है कि गोया नूर की यलग़ार हो जाए
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
बहार आई है अब तो ऐ जुनूँ हो सिलसिला जुम्बाँ
कि हम मुद्दत से क़स्द-ए-रफ़्तन-ए-वीराना रखते हैं
शाह नसीर
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़-ओ-काकुल का फ़साना हो किसी तरह दराज़
इस ख़म-ओ-पेच में है सिलसिला-जुम्बाँ कोई