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ग़ज़ल
तलाश-ए-बहर में क़तरे ने कितनी ठोकरें खाईं
समझ लेता जो ख़ुद को बन ही जाता बे-कराँ अब तक
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
उफ़ ये तलाश-ए-हुस्न-ओ-हक़ीक़त किस जा ठहरें जाएँ कहाँ
सेहन-ए-चमन में फूल खिले हैं सहरा में दीवाने हैं
इब्न-ए-सफ़ी
ग़ज़ल
बशर रोज़-ए-अज़ल से शेफ़्ता है शान-ओ-शौकत का
अनासिर के मुरक़्क़े में भरा है नक़्श दौलत का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
'बहर' अपनी अपनी क़िस्मत है ब-शक्ल-ए-मेहर-ओ-माह
ज़र उसे बख़्शा उसे कासा दिया ख़ैरात का