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ग़ज़ल
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
उधर कुछ और कहती है इधर कुछ और कहती है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ले उड़ा क्या इजि़्तराब-ए-जुस्तुजू-ए-नामा-बर
मैं जो उछला आ गए जिबरील के पर हाथ में
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
ले उड़ा क्या इजि़्तराब-ए-जुस्तुजू-ए-नामा-बर
मैं जो उछला आ गए जिब्रील के पर हाथ में
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
मिट्टी में क्या धरी थी कि चुपके से सौंप दी
जान-ए-अज़ीज़ पेशकश-ए-नामा-बर ग़लत
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
देखियो ज़िद मेरे मुर्ग़-ए-नामा-बर के वास्ते
क़ैंचियाँ लगवाईं हैं बे-रहम ने दीवार पर
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
गो मुर्ग़-ए-नामा-बर को बिस्मिल किया है उस ने
तय कर रहेगा आख़िर मंज़िल तड़प तड़प कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बने बला से मिरा मुर्ग़-ए-नामा-बर भँवरा
कि उस को देख के वो मुँह से ख़ुश-ख़बर तो कहे