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ग़ज़ल
न बरतो उन से अपनाइयत के तुम बरताव ऐ 'मुज़्तर'
पराया माल इन बातों से अपना हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
अमीर रज़ा मज़हरी
ग़ज़ल
किसी से मेहर चाहो जब कि उस से बे-रुख़ी बरतो
तुम्हें मालूम है नाँ मेरी जाँ ऐसे नहीं होता
शम्स ख़ालिद
ग़ज़ल
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं