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ग़ज़ल
वक़्त-जुआरी की बैठक में जो आया सो हार गया
'अख़्तर' इक दिन मैं भी दामन झाड़ के निकला एक तरफ़
अख़्तर शुमार
ग़ज़ल
यही इक कोठरी अपने लिए आँगन है बैठक है
अगर इस शहर में जीना है घर की बात मत सोचो
हामिद इक़बाल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
भूल बैठा हूँ किताबों और क्लासों के सबक़
तुम ने लेकिन जो पढ़ाया था वो अब तक याद है