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ग़ज़ल
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
तुम अपने होंठ आईने में देखो और फिर सोचो
कि हम सिर्फ़ एक बोसे पर क़नाअ'त क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी