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ग़ज़ल
न ख़ुशबू पैरहन की है न ज़ुल्फ़ों की न बातों की
हमें ये जल्वा-ए-बाला-ए-बाम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
क्या जाने कब वो सुब्ह-ए-बहाराँ हो जल्वा-गर
दौर-ए-ख़िज़ाँ में जिस से बहलते रहे हैं हम
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
शहर पे रतजगों से भी बाब-ए-उफ़ुक़ न खुल सका
वुसअत-ए-बाम-ओ-दर 'नजीब' वुसअत-ए-बाम-ओ-दर में थी
नजीब अहमद
ग़ज़ल
ये तो तलब नहीं कि ब-क़द्र-ए-तलब मिले
लेकिन ब-क़द्र-ए--वुसअ'त-ए-दामाँ कभी कभी
सय्यद मुज़फ़्फ़र अहमद ज़िया
ग़ज़ल
गुल-फ़िशानी-हा-ए-नाज़-ए-जल्वा को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लाला-कारी हाए हाए
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तंग उस पे क्यों न वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ रहे
गिर जाए जो नज़र से तुम्हारी कहाँ रहे
राजेन्द्र बहादुर माैज
ग़ज़ल
आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहाराँ नहीं जीने देती
वुसअ'त-ए-चाक-ए-ए-गरेबाँ नहीं जीने देती