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ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त में आँखों से मिरी अश्क-ए-अलम निकले
अंधेरा भी ज़ियादा था सितारे भी न कम निकले
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
गौहर उस्मानी
ग़ज़ल
मौत से यूँ शब-ए-अलम ख़ुश हुए मुब्तला-ए-ग़म
शाद हो जिस तरह से यार सूरत-ए-यार देख कर