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ग़ज़ल
शब-ए-तन्हाई में जो सींचता था दर्द-ए-पिन्हाँ को
सजाता है बदन से अपने अब गोर-ए-ग़रीबाँ को
डॉ. हबीबुर्रहमान
ग़ज़ल
'शान' अब हम को तो अक्सर शब-ए-तन्हाई में
नींद आती नहीं और ख़्वाब नज़र आते हैं