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ग़ज़ल
नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब'
कि ये शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर
है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
यक क़दम वहशत से दर्स-ए-दफ़्तर-ए-इम्काँ खुला
जादा अजज़ा-ए-दो-आलम दश्त का शीराज़ा था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चंद लम्हों की रिफ़ाक़त ही ग़नीमत है कि फिर
चंद लम्हों में ये शीराज़ा बिखर जाएगा