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ग़ज़ल
रोने वालों ने तिरे ग़म को सराहा ही नहीं
रात ख़ुश रह के भी कट सकती है सोचा ही नहीं
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
कभी शेर में सराहा कभी नज़्म में पिरोया
मैं ने आतिश-ए-निहाँ से तिरे हुस्न को उजाला
हावी मोमिन आबादी
ग़ज़ल
'नासिर' ओ 'बानी' सा तुझ को भी सराहा जाएगा
जब तिरा रंग-ए-सुख़न होगा हज़ारों से जुदा
आरिफ़ अंसारी
ग़ज़ल
कफ़-ए-गुमाँ से जो गिरना था उम्र भर के लिए
तो एक पल को सराहा गया था क्यूँ मुझ को
ख़ुर्शीद रब्बानी
ग़ज़ल
'इंशा' ने जो शफ़क़ को सराहा तो बोले आप
कम-बख़्त क्या बला है लहू के हुलूक सी
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
सरापा हुस्न बन जाता है जिस के हुस्न का 'आशिक़
भला ऐ दिल हसीं ऐसा भी है कोई हसीनों में