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ग़ज़ल
दिल की दीवारों पे हम ने आज भी सीलन देखी है
जाने कब आँखें रोई थीं जाने कब बादल बरसा था
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
रोज़ इक बुझती हुई सीलन भरे कमरे की शाम
खिड़कियों में रोज़ मुरझाते ये बीमारी के दिन
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
ख़ामोशी के नल से टपकतीं क़तरा-क़तरा आवाज़ें
दीवारों की सीलन पर है काई जैसा सन्नाटा
संजय कुमार कुन्दन
ग़ज़ल
एक अजब सीलन थी जिस में रोज़ मिरा दम घुटता था
हिज्र का सूरज मत ले जाना यार ख़ुदारा कमरे से