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ग़ज़ल
ग़ज़ल सुनाई जो सर्वत को मैं ने ऐ 'हाशिम'
वो बोले सुन के सुख़न-कार इक समुंदर है
हाशिम रज़ा जलालपुरी
ग़ज़ल
क़तरा हूँ मगर रौनक़-ए-सहरा हूँ बुरा हूँ
मज़लूम के ज़ख़्मों का मसीहा हूँ बुरा हूँ
नक़्क़ाश अली बलूच
ग़ज़ल
क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे
मुझ से क़रीब-तर न थे जो तिरी चाह में रहे
गाैस मथरावी
ग़ज़ल
नए नैरंग दिखलाता है ये चर्ख़-ए-कुहन क्या क्या
जहाँ में गुल खिलाएगी अभी ख़ाक-ए-चमन क्या क्या
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
ग़ज़ल
गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
पर मिरे यार के चेहरे का सा ढंग और नमक