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ग़ज़ल
कब गुल है हवा-ख़्वाह सबा अपने चमन का
वा जुम्बिश-ए-दम से है रफ़ू ज़ख़्म-ए-कुहन का
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल
क्या शम्अ' के नहीं हैं हवा-ख़्वाह बज़्म में
हो ग़म ही जाँ-गुदाज़ तो ग़म-ख़्वार क्या करें
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हूँ हवा-ख़्वाह मैं ऐ गुल तिरा जियूँ मौज-ए-नसीम
ग़ुंचा-साँ कब है गिरह का तिरे नुक़साँ मुझ से
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
कौन था उस के हवा-ख़्वाहों में जो शामिल न था
अब हुआ मालूम मुझ को दिल भी मेरा दिल न था
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
दम-ब-दम भरते हैं हम तेरी हवा-ख़्वाही का दम
कर न बद-ख़ुओं के कहने से हमें बर्बाद तू
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
लम्हों में ज़िंदगी का सफ़र यूँ गुज़र गया
साए में जैसे कोई मुसाफ़िर ठहर गया