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ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सिखाए हुस्न-ए-काफ़िर को सलीक़े ख़ुद-नुमाई के
सँवारा पै-ब-पै अपना मज़ाक़-ए-आशिक़ी मैं ने
लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हट जाए इक तरफ़ बुत-ए-काफ़िर की राह से
दे कोई जल्द दौड़ के महशर को इत्तिलाअ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बे-ख़बर है अपने अंदाज़-ए-दिल-आराई से हुस्न
क्यों न उस को इश्क़ से भी बढ़ के दीवाना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
शोला-ए-हुस्न-ए-बुताँ फूँक न दे आलम को
सुर्ख़ हैं फूल से रुख़्सार बड़ी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हुस्न-ए-रुख़्सार बढ़ा ख़त की नुमूदारी से
ज़ीनत-ए-सफ़हा हुई जदवल-ए-ज़ंगारी से
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
ग़ज़ल
बुतों की बंदगी है शुक्रिया साने' की सन'अत का
वो काफ़िर क्यों हुआ जिस को ये दिलबर याद आते हैं