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ग़ज़ल
मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई
उम्र-ए-अज़ीज़ सर्फ़-ए-इबादत ही क्यूँ न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ुटपाथ पे भी सोने न दिया तिरे शहर के इज़्ज़त-दारों ने
हम कितनी दूर से आए थे इक रात बसर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
जिन के फ़ुटपाठ पे घर पाँव में छाले होंगे
उन के ज़ेहनों में न मस्जिद न शिवाले होंगे
शिफ़ा कजगावन्वी
ग़ज़ल
हैं ये फुट-पाथ के बिस्तर ही मुक़द्दर कुछ के
सब नहीं लौट के जा पाते हैं घर शाम के बा'द
सिराज फ़ैसल ख़ान
ग़ज़ल
उम्र के फ़ौत का हम मर्सिया पढ़ते जो कभू
आन कर ख़िज़्र ओ मसीह अपने जवाबी होते