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ग़ज़ल
दबी हुई है ज़ेर-ए-ज़मीं इक दहशत गुंग सदाओं की
बिजली सी कहीं लरज़ रही है किसी छुपे तह-ख़ाने में
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ की चमक पैकर-ए-सीमीं की दमक
दीप-माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दरून-ए-हल्क़ा-ए-गंग-ओ-जमन है शे'र की दुनिया
ये दिल्ली लखनऊ भी कुछ नहीं इस पार हैं दोनों
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
मेरी गंग-ओ-जमन तहज़ीब की दुख़्तर है ये उर्दू
इसे मुस्लिम बनाने की ये साज़िश आम है साक़ी
अजय सहाब
ग़ज़ल
ज़ख़्मी हुआ है नाम को दर-पर्दा हुस्न भी
यूसुफ़ का ख़ून-ए-गुर्ग से है पैरहन ख़राब
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
गुर्ग-ए-एहसास से बचने की तो कोई नहीं राह
सग-ए-तख़ईल पे बंद आँख का दरवाज़ा करें
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
गुर्ग-ओ-समंद ओ मूश-ओ-सग छाँट के एक एक रग
फिरते हैं सब अलग अलग रहते हैं एक खाल में