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ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुतमइन थे राज़-ए-दिल हम में कहीं महफ़ूज़ है
उस को भी तन्हाई की पर आवा-जाई ले अड़ी
अखिलेश तिवारी
ग़ज़ल
जो है पास निछावर कर दूँ जंगल में महकारें भर दूँ
कस्तूरी की महक उड़ा दूँ शेर है दूर कछारों वाला
इक़तिदार जावेद
ग़ज़ल
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है