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ग़ज़ल
ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर
आख़िर इक दिन सूरत ये सब मिट्टी में मिल जाएगी
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
ग़र्रा मत हो जो ज़माने से तिरी बन आई
था वो क्या क्या कि न बिगड़ा न बना क्या क्या कुछ