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ग़ज़ल
ख़ाक अपनी ख़ाक-ए-कूचा-ए-जानाँ में जा मिली
एहसानमंद-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ नहीं हैं हम
अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल
हम ए’तकाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ न कर सके
दाग़-ए-जिगर को शो'ला-ए-रक़्साँ न कर सके
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
कूचा-ए-जानाँ में जा निकले जो ग़िल्माँ भूल कर
याद हो उस को न फिर गुलज़ार-ए-रिज़वाँ भूल कर
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
ख़ाली आशिक़ से कभी कूचा-ए-जानाँ न रहा
कौन सी शब वो थी जिस में कोई गिर्यां न रहा
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे
मैं कहाँ जाता हूँ कोई लिए जाता है मुझे
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
हूँ दफ़्न मर के कूचा-ए-जानाँ के सामने
बुलबुल का आशियाँ हो गुलिस्ताँ के सामने
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
नहीं दुनिया में सिवा ख़ार-ओ-ख़स-ए-कूचा-ए-दोस्त
सर-ए-शोरीदा की ख़्वाहिश ब-कुलाहे गाहे
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
ब-नाम-ए-कूचा-ए-दिलदार गुल बरसे कि संग आए
हँसा है चाक-ए-पैराहन न क्यूँ चेहरे पे रंग आए