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ग़ज़ल
सुना है सूफ़ियों से हम ने अक्सर ख़ानक़ाहों में
कि ये रंगीं-बयानी 'बेदम'-ए-रंगीं-बयाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
कुछ दिनों बैठो सर-ए-क़ब्र-ए-'अज़ीज़'-ए-बे-नवा
ख़ानक़ाहों में बहुत दुश्वार है कामिल बनो
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
ख़ानक़ाहों के जिगर-दारों में हंगाम-ए-जिदाल
पास-ए-क़ुरआँ पास-ए-तालीम-ए-पयम्बर देखिए
मुनव्वर लखनवी
ग़ज़ल
हर तरफ़ साक़ी तिरा फ़ैज़-ए-नज़र पाता हूँ मैं
ख़ानक़ाहों में भी मस्ती का असर पाता हूँ मैं
शफ़ीक़ जौनपुरी
ग़ज़ल
मुवह्हिद वो हूँ गर मैं सिर्र-ए-वहदत कान में कह दूँ
मुअज़्ज़िन बुत-कदे में हों बरहमन ख़ानक़ाहों में