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ग़ज़ल
ख़िल्क़त के आवाज़े भी थे बंद उस के दरवाज़े भी थे
फिर भी उस कूचे से गुज़रे फिर भी उस का नाम लिया है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ख़िल्क़त-ए-शहर के हर ज़ुल्म के बा-वस्फ़ 'फ़राज़'
हाए वो हाथ कि अपने ही गरेबान में है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मरकज़-ए-शहर में रहने पे मुसिर थी ख़िल्क़त
और मैं वाबस्ता तिरे दिल के मज़ाफ़ात से था
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
वहदत ओ कसरत के जल्वे ख़िल्क़त-ए-इंसाँ में देख
एक ज़र्रा इस क़दर फैला कि दुनिया हो गया
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
सारी ख़िल्क़त एक तरफ़ थी और दिवाना एक तरफ़
तेरे लिए मैं पाँव पे अपने जम के खड़ा था एक तरफ़
अख़्तर शुमार
ग़ज़ल
आलम है शौक़-ए-कुश्ता-ए-ख़िल्क़त है तेरी रफ़्ता
जानों की आरज़ू तू आँखों का मुद्दआ' तू
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
शायद आ पहुँचा है अहद-ए-इंतिज़ार-ए-गुफ़्तुगू
चार जानिब ख़िल्क़त-ए-लब-बस्तगाँ मौजूद है