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ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ