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ग़ज़ल
क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का
उस में जौहर है मिरी आईना-सीमाई का
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
जल्वा-गर है इस में ऐ 'सीमाब' इक दुनिया-ए-हुस्न
जाम-ए-जम से है ज़ियादा दिल का आईना मुझे
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
ये है 'सीमाब' इक ना-गुफ़्ता ब-अफ़्साना क्या कहिए
वतन से कुंज-ए-ग़ुर्बत में चले आने पे क्या गुज़री
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
वो बुत-ए-आईना-सीमा ज़ीनत-ए-पहलू है 'नाज़'
आज तो हम भी नसीबे के सिकंदर हो गए
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
दिखाएगी मोहब्बत एक दिन उन को असर अपना
समाई दिल में जो उन के वो मेरे दिल से निकलेगी
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
जहाँ रखता हूँ सर अपना सिमट आती है कुल दुनिया
मुझे तक़्दीस-ए-सज्दा अब कहीं मा'लूम होती है
सलाहुद्दीन फ़ाइक़ बुरहानपुरी
ग़ज़ल
तुम्हारे जाने से पत्थर में ढल चुकी 'सीमा'
तुम्हारे लौट के आने से कुछ नहीं होगा
सीमा शर्मा मेरठी
ग़ज़ल
दुनिया है इस की शाहिद इस शहर-ए-बे-अमाँ ने
जिस में अना समाई वो सर कुचल दिया है