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ग़ज़ल
अपना तो ये काम है भाई दिल का ख़ून बहाते रहना
जाग जाग कर इन रातों में शे'र की आग जलाते रहना
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
ऐ दीदा-ए-गिर्यां क्या कहिए इस प्यार-भरे अफ़्साने को
इक शम्अ' जली बुझने के लिए इक फूल खिला मुरझाने को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
इश्क़ मियाँ इस आग में मेरा ज़ाहिर ही चमका देना
मेरे बदन की मिट्टी को ज़रा कुंदन-रंग बना देना
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा
ख़ुद ही उठ बैठ किसी इज़्न ओ इजाज़त पे न जा
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
आँखों में वीरानी सी है पलकें भीगी बाल खुले
तू बे-वक़्त पशेमाँ क्यूँ है हम पर भी कुछ हाल खुले
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच
सुरख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था
जिस को हम पत्थर समझे थे चश्मे जैसा फूट बहा था
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में
कि ज़ेवर हो गया तौक़-ए-ग़ुलामी अपनी गर्दन में