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ग़ज़ल
लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है
आरास्ता ये घर इसी मेहमाँ के लिए है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
क्या मिरा इश्क़-ए-जिगर-सोज़ ख़ुदा-दाद नहीं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
मिरे मातम की क्या जल्दी है क्यूँ ज़ेवर बढ़ाते हैं
अभी आरास्ता वो हुस्न का बाज़ार रहने दें
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
वो भी क्या शख़्स है जो क़स्र-ए-तसव्वुर में मुझे
रोज़ आरास्ता करता है मज़ारों की तरह
सय्यदा नफ़ीस बानो शम्अ
ग़ज़ल
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
बज़्म आरास्ता होगी तो नुमायाँ होंगे
किसी तंहाई में शायद हैं निहाँ तुम और मैं
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर
ग़ज़ल
गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है
फिर इक शाम-ए-विसाल-आगीं तुझे मेहमान करना है